Friday 6 April 2018

रेहल की स्मृतियां




रेहल की स्मृतियां





रेहल के निकट रोहतास दुर्ग का सिंह द्वार, अगस्त, २००८


रोहतास जिलान्तर्गत कैमूर की पहाड़ियों के घने वनों के मध्य अवस्थित रेहल ग्राम के निवासियों के लिए आज का दिन अत्यंत ऐतिहासिक एवं विशेष है । कभी उग्रवादियों की विध्वंसक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित रहा यह ग्राम आज मुख्यधारा से पूर्णतः जुड़ चुका है तथा पिछले एक दशक में हुए अप्रत्याशित परिवर्तनों का जीवंत साक्षी है । कल संध्याकाल में जब रोहतास दुर्ग के बभनतालाब निवासी एक नवयुवक द्वारा रेहल में आज आयोजित होने वाले विकासोन्मुखी कार्यक्रमों तथा उसमें बिहार के माननीय मुख्यमंत्री के शुभागमन की सूचना दूरभाष के माध्यम से मिली, तब से ही मन अत्यंत प्रफुल्लित हो उठा तथा कैमूर की पहाड़ियों पर पुलिस अधीक्षक रोहतास की भूमिका में बिताए पलों (2008-11) का स्मरण करने लगा। आज अपराह्न जब भागलपुर से मुंगेर की यात्रा पर निकला तब मानस पटल पर रेहल की पूर्व स्मृतियां लगातार उभरने लगीं और ऐसे में जब मोबाइल फोन पर इंटरनेट के माध्यम से आज के कार्यक्रम की कुछ तस्वीरें देखने को मिलीं तब संभवतः एक विशेष आत्मीय लगाव के कारण रेहलवासियों के स्वाभाविक उल्लास की घङी यात्री मन को अत्यंत आनंदित एवं भविष्य के प्रति आशान्वित करने लगी ।


ध्वस्त रेहल वन विश्रामागार, अगस्त, २००८
जिस परिवर्तन को रेहल ने साक्षात अनुभव किया है, लगभग एक दशक पूर्व उसकी कल्पना करना भी असंभव सा प्रतीत होता था । रेहल का नाम सर्वप्रथम मैंने वर्ष 2002 में तब सुना था जब सिविल सेवा की परीक्षा दे रहा था और तत्कालीन वन प्रमंडल पदाधिकारी आदरणीय संजय सिंह की उग्रवादियों द्वारा निर्मम हत्या कर दी गई थी । रोहतास की हृदयविदारक घटना ने तब संपूर्ण राष्ट्र को झकझोरा था और विशेषकर राष्ट्रसेवा हेतु संकल्पित एवं सिविल सेवाओं में योगदान के प्रति प्रयासरत सभी परीक्षार्थियों पर उसने अत्यंत गहन प्रभाव डाला था । बिहार में पुलिस सेवा में योगदान के पश्चात रोहतास की सूचनाएं अक्सर मिला करती थीं जो जिले में उग्रवादियों के सशक्त अस्तित्व को प्रमाणित करती थीं और विषम परिस्थितियों में सकारात्मक परिवर्तन के प्रति योगदान समर्पित करने हेतु युवा मन को प्रेरित भी करती थीं । अगस्त, 2008 में पुलिस अधीक्षक, रोहतास की भूमिका में योगदान के पश्चात जब मैंने क्षेत्र की भौगोलिक बनावट को समझने का प्रयास किया तब यह पाया कि जिले का लगभग एक तिहाई भाग वनों से आच्छादित और ऊंचे पर्वत पर अवस्थित था जहाँ पक्के मार्गों के अभाव में और कच्चे मार्गों में विस्फोटक बिछे रहने की संभावना के कारण पुलिस की गतिविधियाँ लगभग नगण्य थीं । इसके कारण क्षेत्र के पूर्ववर्ती गौरव का साक्षात् प्रतीकरूप रोहतास दुर्ग भी अत्यंत उपेक्षित और भयाक्रांत था और पहाड़ी क्षेत्रों की जनता मुख्यधारा से कट चुकी थी । मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि वर्षों से रोहतास दुर्ग पर राष्ट्रीय पर्वों के अवसर पर काले झंडे फहर रहे थे और कई ग्रामवासीयों ने प्रजातंत्र के स्रोत अपने मताधिकार का प्रयोग भी दशकों से नही किया था ।



रोहतास दुर्ग, मई, २००९


ऐसी विषम परिस्थितियों में क्षेत्र के परिवर्तन हेतु एक माध्यम रूप में कार्य हेतु मन पूर्णतः संकल्पित था और हर त्याग के लिए तत्पर था । परिवर्तन के लिए क्षेत्र की भौगोलिक बनावट और ऐतिहासिक सभ्यता को समझना आवश्यक था, अतः योगदान के 4 दिवस पश्चात ही सर्वप्रथम मैं रोहतास दुर्ग पर मेढाघाट के रास्ते पैदल चढा था जिसके लिए लगभग 7 किमी की पैदल यात्रा करनी पड़ती थी । 1500 फीट की ऊंचाई पर स्थित 34 किमी की परिधि वाले इस सुदृढ़ एवं सशक्त ऐतिहासिक दुर्ग पर पहुंचने के 4 मुख्य पहाड़ी रास्ते हैं जिनसे पहुंचकर जब यात्री पर्वतीय घाटियों और महानद शोणभद्र (सोन) के विस्तार को देखता है तब मध्यकाल में इसके भारत के सबसे शक्तिशाली दुर्ग के रूप में फरिश्ता एवं अन्य लेखकों के वर्णन का मर्म स्पष्ट प्रतीत होने लगता है । दुर्ग पर पहुंचकर रोहितासन मंदिर के दर्शनोपरांत जब स्थानीय लोगों से बातचीत हुई तब पता चला कि उग्रवादी दस्ता पुलिस को आते देखकर कुछ समय पूर्व ही वहाँ से वन में प्रस्थान कर गया था । और बातें करने पर अपने आप को पौराणिक राजा हरीशचंद्र के पुत्र रोहिताश्व के क्षत्रिय्र वंशज मानने वाले खरवार और ऊराँव जनजाति के लोगों ने दुर्ग को अपना पारंपरिक उद्गम स्थल बताया जहाँ कालांतर में उनके राज्य का पतन अनेकानेक कारणों से हुआ था । यह भी ज्ञात हुआ कि दुर्ग पर स्थित "करम" के वृक्षों को उराँव अत्याधिक पूज्य मानते थे और दुर्ग के इतिहास के विषय में अनेक लोकगीत प्रचलित थे ।

 
रेहल वन विश्रामागार से घाटी का दृश्य, अगस्त, २००८
 
दुर्ग भ्रमण के पश्चात उसके प्राचीन इतिहास, प्रभावशाली वास्तुशिल्प एवं विहंगम प्राकृतिक दृश्यों से मेरी जिज्ञासा में अत्यंत वृद्धि हुई और मैंने बुकानन एवं अन्य लेखकों समेत जिला गैजेटियर का विस्तृत अध्ययन प्रारंभ कर दिया । जब मैंनें वाहनों के साथ पहुंचने के संभावित मार्गों पर शोध करना प्रारंभ किया, तब रेहल ग्राम से लघु मरम्मति के पश्चात सङक मार्ग से रोहतास दुर्ग की सुगम यात्रा की जिला गजेटियर में वर्णित संभावना ने मुझे अत्यंत आकर्षित किया और स्वयं देखने के लिए तत्काल प्रेरित किया । मुझे स्मरण है कि उसी मध्यरात्रि अपने संक्षिप्त समूह के साथ मैं डेहरी पुलिस मुख्यालय से रोहतास की ओर निकल पङा था और प्रातः काल लगभग 5 बजे रेहल पहुंच गया था । रेहल पहुंचकर तब सर्वप्रथम मैंने उग्रवादियों द्वारा ध्वस्त किए गए वन विभाग के भवनों को तथा 2002 की हृदयविदारक घटना के स्थल को देखा था । तत्पश्चात ग्रामवासियों से दुर्ग तक पहुंचने के संभावित मार्गों के बारे में पूछने पर अंग्रेजों की भविष्यवाणी तब सार्थक होती दिखने लगी जब यह पता चला कि "सिंह द्वार" नामक दुर्ग के मुख्य द्वार तक वाहनों से पहुंचना संभव था । कुछ ही समय पश्चात रेहल से लगभग 5 किमी की दूरी पर जब सिंह द्वार पहुंचकर कैमूर की पहाड़ियों से रोहतास दुर्ग के भिन्न पर्वत को जोड़ने वाली खतरनाक घाटियों के मध्य अवस्थित दुर्गम मार्ग (जिसे आकार के कारण कठौटिया घाट भी कहा जाता है) को पार कर अलंकृत कर रहे संस्कृत एवं फारसी भाषाओं के शिलालेख दिखे, तब ऐतिहासिक काल में रेहल के सामरिक महत्व का साक्षात अनुभव होने लगा था ।



रोहतास दुर्ग, दिसंबर, २००८



 
सुबह के करीब 6 बजे जब सूर्य की किरणें वन से आच्छादित प्राचीन दुर्ग के प्राचीरों को अपनी लालिमा से प्रकाशित कर रही थीं तब वहां और समय बिताने की प्रबल इच्छा हो रही थी परंतु क्षेत्र में अवस्थित उग्रवादियों को हमारी उपस्थिति की सूचना मिलने पर लौटने के क्रम में कहीं योजनाबद्ध तरीके से घात लगाकर आक्रमण की संभावनाओं पर विचार करते हुए तुरंत ही रेहल वापस लौटना पङा जहां से हम लगभग 27 किमी दूर अधौरा की ओर प्रस्थान कर गए । लौटने के क्रम में कुबा, दुग्धा एवं लोहरा ग्रामों के विद्यालय भवन तथा रोहतास और कैमूर जिलों को बांटने वाली ऐतिहासिक दुर्गावती नदी के भी दर्शन हुए परंतु रेहल से मात्र 3 किमी दूर अवस्थित सोली ग्राम के विद्यालय भवन को देखने की इच्छा मन में ही रह गई जो 3 सितंबर को जंगल में मुठभेड़ ( http://copinbihar.blogspot.com/2016/08/blog-post.html ) के खतरनाक अनुभव के साथ ही पूर्ण हो सकी ।

 
रेहल भ्रमण, अगस्त, २००८

तत्पश्चात कुछ माह तक पर्वतों और वनों में चले आॅपरेशन विध्वंस तथा वनवासियों से निरंतर साक्षात्कार के क्रम में अत्याधिक भ्रमण और मुठभेड़ों के पश्चात मैंने यह पाया कि यदि ऐसा ही क्रम चलता रहेगा तो परिवर्तन नहीं होगा और अघोषित युद्ध क्षेत्र को ग्रसित कर विकास के मार्ग को अवरुद्ध करती रहेगी । क्षेत्र में परिवर्तन के लिए क्षेत्र की जनता का योगदान आवश्यक था और माहौल बनाने के लिए पुलिस को एक सशक्त माध्यम के रूप में कार्य करना था और भूमिका में परिवर्तन लाना था । ऐसे में रोहतास पुलिस ने तब सोन महोत्सव नामक विशाल सांस्कृतिक आयोजन की परिकल्पना की जिसे सामुदायिक पुलिसिंग के निमित्त व्यवस्था में क्षेत्र के लोगों और विशेषकर बुद्धिजीवियों का अत्याधिक समर्थन मिलता गया और धीरे-धीरे रेहल समेत सुदूर ग्रामों के निवासियों की भागीदारी सुनिश्चित होने लगी I इन कार्यक्रमों में एक तरफ जहाँ पुलिस द्वारा कम्बल बांटने, इलाज कराने, खेल कूद इत्यादि के कार्यक्रम सुदूर उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में आयोजित किये जाते थे वहीँ क्षेत्र में लोगों को अपने इतिहास से सीख लेने और शांति स्थापित कर उज्जवल भविष्य निर्माण हेतु प्रेरित किया जाता था I इस बात पर विशेष चर्चा की जाती थी की जिस क्षेत्र के यशस्वी पूर्वजों ने इतिहास में परमोत्कर्ष प्राप्त करते हुए ऊँचे पर्वत पर रोहतास दुर्ग जैसे स्थापत्य का निर्माण किया उनके वंशजों के काल में कैसे वही क्षेत्र शांति के अभाव में विकास की मुख्य धरा से कट गया I
 
जब सोन घाटी में पुलिस और ग्रामवासियों के बीच सकारात्मक संबंध स्थापित होने लगे जो कालांतर में निर्बाध गति से बढने लगे तब क्षेत्र में वर्षों से जमे उग्रवादियों ने विकास में अवरोध का निरंतर प्रयास किया और यहाँ तक कि लोक सभा चुनाव के पूर्व रेहल के निकट स्थित धनसा ग्राम में बीएसएफ की छावनी तक पर आक्रमण किया परंतु धीरे-धीरे लोगों का साथ और विश्वास मिलता गया जिससे गतिविधियों की गुप्त सूचनाएं एवं तदनन्तर उपलब्धियां भी नित्य मिलती रहीं । मुझे स्मरण है कि मार्च 2010 में जब रोहतास दुर्ग को पर्यटक स्थल के रूप में प्रतिष्ठित करने हेतु रेहल समेत अन्य पर्वतीय युवाओं के बीच पुलिस द्वारा प्रशिक्षणोप्रांत साईकिल एवं अन्य सामग्रियों का वितरण किया जा रहा था तब एक युवक ने बताया था कि वनवासियों में परिवर्तन की प्रेरणा पूर्णतः जग चुकी थी और जल्दी ही सम्मिलित प्रयासों एवं श्रमदान के माध्यम से वे रेहल से रोहतास दुर्ग तक पहुंचने वाले मार्ग की आवश्यकत मरम्मति करने हेतु प्रेरित हो चुके थे । तब सुनकर मुझे भी यह विश्वास हो गया था कि परिवर्तन की निश्चित यात्रा प्रारंभ हो चुकी थी और हर अवरोध को मिटाने हेतु तत्पर थी । इतिहास पर परिचर्चा समेत अनेकानेक कार्यक्रमों जैसे पर्यटक गाइडों के प्रशिक्षण इत्यादि का यह असर हुआ कि रोहतास दुर्ग को अपना उद्गम स्थल मानने वाले ऊराँव एवं खरवार जनजातियों ने खुलकर क्षेत्र में अशांति फैला रहे उग्रवादियों के विरुद्ध शंखनाद कर दिया जिसने अंततः स्थायी शांति का बीजारोपण किया और जो क्षेत्र कभी केवल उग्रवादियों की विध्वंसक गतिविधियों के केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था और जहां पहले पुलिस ही कभी-कभी छुप-छुपाकर और पूर्ण सावधानी के साथ बङी संख्या में उग्रवादियों के विरुद्ध छापामारी हेतु ही पहुंचती थी वहां आज बिहार सरकार के माननीय मुख्यमंत्री स्वयं पहुंचे हैं । आज रेहल विकास यात्रा पर अग्रसर हो चुका है ( http://copinbihar.blogspot.in/2016/07/a-story-of-change-in-forest-with-fort.html )। जहां के बच्चों ने पहले बल्ब और रेलगाड़ी भी नहीं देखी थी, आज वहां का हर आंगन सौर ऊर्जा से प्रकाशित है और शीघ्र ही ग्रिड से भी जुड़ने वाला है । शांति स्थापित है तथा विद्या का प्रवाह भविष्य के प्रति शुभ संकेत धारण किए हुए है ।

मन में यह मंगलकामना है कि जिस परिवर्तन का आज रेहल साक्षी बना है, वह प्रकाश मुख्यधारा से कटे अन्य क्षेत्रों को भी लाभान्वित एवं परिवर्तित करे । मुंगेर, जमुई एवं लखीसराय समेत अन्य क्षेत्रों के घने वनों में अवस्थित और मुख्यधारा से कटे ग्राम भी शीघ्र परिवर्तन के साक्षी बनें । रेहल साक्षी है कि यदि सकारात्मक सोच के साथ सृजनात्मक गतिविधियाँ परिवर्तन के निमित्त दृढ निश्चय एवं पारदर्शिता के साथ की जाएँ, तो इच्छित उद्देश्य की प्राप्ति में कोई अवरोध बाधक नहीं हो सकता ।

जय हिंद !

 

रेहल के निकट धंसा घाटी के पास, दिसंबर, २००८